व्यवहार – संज्ञान का आधार और कसौटी – १

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञान के द्वंद्वात्मक सिद्धांत के अंतर्गत संज्ञान की प्रक्रिया की संरचना पर चर्चा का समापन किया था, इस बार हम संज्ञान के आधार और कसौटी के रूप में व्यवहार को समझने की कोशिश शुरू करेंगे ।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।


व्यवहार – संज्ञान का आधार और कसौटी – १
( practice – basis and criterion of cognition – 1 )

Pieter_bruegel_il_giovane,_estate_02दर्शन में ‘व्यवहार’ ( practice ) संप्रत्यय का विशेष अर्थ है। मनुष्य के प्रकृति और समाज का रूपांतरण ( transformation ) करने वाले सोद्देश्य ( purposive ) सामाजिक क्रियाकलाप ही व्यवहार हैं। इसमें निम्नांकित चीज़ें शामिल हैं : पहली, भौतिक उत्पादन की प्रक्रिया ; दूसरी, वर्गों की, अवाम की सामाजिक-राजनीतिक, रूपांतरणात्मक क्रियाएं और तीसरी, वैज्ञानिक अनुसंधान और प्रयोग। व्यावहारिक सामाजिक क्रियाकलाप ही संज्ञान के प्रमुख, सारभूत आधार ( basis ) हैं। बाह्य जगत के साथ व्यावहारिक अंतर्क्रिया ( practical interaction ) के दौरान ही सच्चा वैज्ञानिक संज्ञान संभव है और व्यावहारिक आवश्यकताएं, जीवन की जरूरतें ही संज्ञान, विज्ञान के विकास को प्रणोदित ( propelled ) करती हैं। साथ ही, व्यवहार ही हमारे ज्ञान की सत्यता की कसौटी ( criterion ) भी है। व्यवहार विभिन्न संकल्पनाओं और सिद्धांतों को परखने ( testing ), उनकी सत्यता या मिथ्यापन को साबित करने ( proving ), ज्ञान को परिभाषित तथा प्रणालीबद्ध ( define and systematize ) करने का काम करता है।

जीवन में मनुष्य का प्रकृति, समाज या स्वयं मानव चिंतन की बहुत ही विविध परिघटनाओं ( phenomenon ) से साक्षात्कार होता है। आधुनिक समाज का ही उदाहरण लें। उसकी जटिल परिस्थितियों में ठीक दिशा ढूंढ़ने और काम करने के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति को सामाजिक विकास के नियमों का ज्ञान हो। यह स्पष्ट है कि सामाजिक संरचनाओं ( social structures ) के कार्य और परिवर्तन, वर्ग संघर्ष ( class struggle ) के नियमों और संस्कृति के विकास के नियमों के अध्ययन में, उन श्रम औज़ारों और यंत्रों का प्रयोग नहीं किया जा सकता, जो प्रकृति की वस्तुओं के रूपांतरण एवं अध्ययन में प्रयुक्त होते हैं। तब तो यह कहा जा सकता है कि वस्तुओं तथा औज़ारों से संबंधित कार्यकलाप सभी मामलों में संज्ञान का आधार और कसौटी नहीं बन सकता।

लेकिन हमें निष्कर्ष ( conclusion ) निकालने में इतनी उतावली दिखाने की कोई जरूरत नहीं। बात यह है कि श्रम और सारा वस्तु-औज़ार कार्यकलाप अपने आप में सामाजिक परिघटनाएं हैं। उन्हें संपन्न करने के लिए आवश्यक है कि लोग एक दूसरे के संपर्क में आयें, आत्मसंगठन के इन या उन रूपों का पालन करें, सूचनाओं का विनिमय ( exchange ) करें और संचित ( accumulated ) अनुभवों को सुरक्षित रखें, संप्रेषित ( communicate ) करें और बढ़ायें। इसलिए ‘व्यवहार’ या अधिक व्यापक संदर्भ में, ‘सामाजिक तथा उत्पादन संबंधी व्यवहार’ को हमें उन प्रक्रियाओं और कार्यों की समष्टि ( totality ) के अर्थ में लेना होगा, जो मनुष्य के वस्तु-औज़ार कार्यकलाप के आधार पर पैदा होते हैं और इस कार्यकलाप के अस्तित्व ( existence ) तथा विकास ( development ) के लिए आवश्यक परिस्थितियां बनाते हैं।

इस दृष्टि से विरोधपूर्ण ( antagonistic ) समाज में वर्ग संघर्ष, सामाजिक तथा उत्पादन संबंधी व्यवहार का एक महत्त्वपूर्णतम तत्व होता है, क्योंकि वह उत्पादक शक्तियों ( productive forces ) तथा उत्पादन संबंधों के विकास के आधार पर पैदा होता है और उसकी प्रगति ( progress ) तथा परिणाम पर सामाजिक उत्पादन की आगे प्रगति निर्भर होती है। वर्ग संघर्ष के दौरान विभिन्न राजनीतिक विचारधाराएं ( political ideologies ) ही प्रतिपादित नहीं की जातीं, उसके दौरान इसकी परीक्षा भी होती है कि ये विचारधाराएं इस या उस वर्ग के हितों को किस हद तक व्यक्त करती हैं, घोषित लक्ष्य सामाजिक विकास की आवश्यकताओं के कितने अनुकूल हैं और संघर्ष के जो रूप तथा साधन प्रस्तावित किये गये हैं, वे कितने कारगर ( effective ) हैं।


इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम

संभावना और वास्तविकता – २

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने भौतिकवादी द्वंद्ववाद के प्रवर्गों के अंतर्गत ‘संभावना और वास्तविकता’ के प्रवर्गों को समझने का प्रयास शुरू किया था, इस बार हम उसी चर्चा को आगे बढ़ाते हुए उसका समापन करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।


भौतिकवादी द्वंद्ववाद के प्रवर्ग
संभावना और वास्तविकता – २
( possibility and actuality – 2)

Nachar 2अमूर्त संभावनाओं ( abstract possibility ) के कार्यान्वयन की संभाव्यताएं ( probabilities ) भिन्न-भिन्न होती हैं। कुछ अमूर्त संभावनाओं का कार्यान्वित होना इतनी दूर की बात है कि मानो वे असंभाव्यता ( impossibility ) की सीमा पर हों। फिर भी अमूर्त संभावना को असंभाव्यता के तदनुरूप नहीं मानना चाहिये, क्योंकि असंभाव्यता प्रकृति और समाज के नियमों का प्रतिवाद करती है, उनके ख़िलाफ़ होती है और कभी भी वास्तविकता में परिणत नहीं हो सकती।

अमूर्त और वास्तविक संभावनाओं ( real possibilities ) के बीच अंतर सारभूत ( essential ), परंतु सापेक्ष ( relative ) है। कई अमूर्त संभावनाएं वास्तविक में परिवर्तित होने की विभिन्न अवस्थाओं में होती हैं। जहां तक व्यावहारिक कार्यों का संबंध हैं, काम करनेवाले को वास्तविक संभावनाओं की ओर उन्मुख ( oriented ) होना चाहिये। यहां ध्यान रखने का मुद्दा यह है कि वास्तविक संभावनाओं की व्यवहार्यता ( feasibility ) में अंतर हो सकता है : इनमें से कुछ को अन्य के मुक़ाबले ज़्यादा आसानी से कार्यान्वित किया जा सकता है।

संभावना का वास्तविकता में संक्रमण ( transition ) अनुक्रमिक द्वंद्वात्मक निषेधों ( successive dialectical negations ) की एक प्रक्रिया है। अमूर्त, आकारिक ( formal ) संभावना मूर्त, वास्तविक संभावना में और यह संभावना वास्तविकता ( reality ) में बदल जाती है। अपनी बारी में वास्तविकता अपने विकास के दौरान नयी संभावनाओं को जन्म देती है, शुरू में अमूर्त और फिर मूर्त संभावना को, जो नयी वास्तविकता में विकसित हो सकती हैं, बशर्ते कि कुछ कारण, पूर्वावस्थाएं, आदि मौजूद हों। इसे जैविक विकास के उदाहरणों और जीन इंजीनियरी की रचनाओं में आसानी से देखा जा सकता है।

डी एन ए के अणुओं के घटक तथा जीवित अंगियों ( living organism ) की आनुवंशिकता ( heredity ) का नियंत्रण करनेवाले जीनों को विभिन्न तरीक़ों से संयुक्त ( combined ) किया जा सकता है। इससे स्पष्ट है कि स्वयं प्रकृति में नयी आनुवंशिक विशेषताओं के पैदा होने, सुदृढ़ होने और फलतः नयी जातियों ( species ) की उत्पत्ति होने की संभावना हमेशा विद्यमान होती है। किंतु उस संभावना के यथार्थता में परिणत होने के वास्ते पूर्वावस्थाओं के के समुच्चय की आवश्यकता होती है, जो जैविक क्रम-विकास ( evolution ), प्राकृतिक वरण ( natural selection ) तथा अस्तित्व के लिए संघर्ष ( struggle ) के दौरान विकसित हुई हैं। नयी जातियों की उत्पत्ति के लिए आवश्यक पूरा समुच्चय हमेशा विद्यमान नहीं होता है, इसलिए प्रकृति में नयी जातियां उत्पन्न होना अक्सर मुश्किल ही होता है। जीन इंजीनियरी के उद्‍भव ( rise ) के साथ लोगों ने वंशानुगतता ( inheritance ) पर नियंत्रण करना और नयी जातियों की रचना करना तक सीख लिया है। हमारे युग में नयी जातियों की “रचना करने” की संभावना वास्तविकता में परिणत हो गयी है। नये सूक्ष्म जीवाणुओं, पौधों, पशुओं की नयी जातियों व नस्लों की रचना की जा रही है। जाति रचना की जो पद्धति लाखों वर्षों से विद्यमान थी उसका वस्तुतः निषेध ( negation ) किया जा रहा है, किंतु यह निषेध पूर्ण ( full ) नहीं है, अतः यह उन्मूलन ( abolition ) नहीं है। यह द्वंद्वात्मक निषेध है, क्योंकि यह प्रकृति के विकास के दौरान बने डी एन ए में समाविष्ट तत्वों ( incorporated elements ) के ही संयुक्तिकरण ( combination ) की क्रियाविधि पर आधारित है।

संभव तथा यथार्थ की द्वंद्वात्मकता सामाजिक विकास में विशेष स्पष्टता से व्यक्त होती है। इसमें संभव का यथार्थ में संक्रमण और उसके आधार पर नयी संभावनाओं की रचना लोगों के सचेत क्रियाकलाप ( conscious activity ) के साथ जुड़ी है।

प्रकृति में संभावना को वास्तविकता में बदलने के लिए केवल वस्तुगत दशाएं ( objective condition ) ही पर्याप्त होती हैं। मसलन, कोई बीज आवश्यक तापमान और नमी वाली उपयुक्त जगह पर महज़ गिर भर जाये, तो उसमें अंकुरण ( germinate ) हो जायेगा। परंतु सामाजिक जीवन में, जहां चेतना ( consciousness ) और संकल्प ( will ) वाले लोग कार्यरत होते हैं, संभावना को भिन्न तरीक़े से वास्तविकता में परिणत किया जाता है। यहां यह प्रक्रिया स्वचालित ( automatic ) नहीं होती, बल्कि सचेत मानव क्रिया का परिणाम होती है। इसीलिए समाज में एक संभावना को वास्तविकता में बदलने के लिए वस्तुगत दशाएं ही काफ़ी नहीं है, इसके लिए आत्मगत दशाओं ( subjective conditions ) की भी आवश्यकता होती है, जैसे रूपांतरणों ( transformation ) की आवश्यकता की जानकारी, उनके लिए काम करने का संकल्प, जनगण का, संबंधित वर्गों का संगठन ( organisation ), आदि।

सचेत मानवीय क्रियाकलाप पर, संभावना के वास्तविकता में परिवर्तन की यह निर्भरता, विरोधी प्रवृत्तियों और शक्तियों ( opposite tendencies and forces ) के अस्तित्व के कारण विभिन्न संभावनाओं की एकसाथ उत्पत्ति को देखते हुए और भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। इनमें से कौनसी संभावनाएं कार्यान्वित होंगी, यह अधिकांशतः उन शक्तियों के क्रियाकलाप पर, उनके बीच संघर्ष के परिणाम ( outcome ) पर निर्भर होता है।


इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम

संभावना और वास्तविकता – १

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने भौतिकवादी द्वंद्ववाद के प्रवर्गों के अंतर्गत ‘अनिवार्यता और संयोग’ के प्रवर्गों पर चर्चा का समापन किया था, इस बार हम ‘संभावना और वास्तविकता’ प्रवर्गों को समझने का प्रयास शुरू करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।


भौतिकवादी द्वंद्ववाद के प्रवर्ग
संभावना और वास्तविकता – १
( possibility and actuality – 1)

main-qimg-15080eaa6d9ffcd547a8be1d536028dcवस्तुगत जगत ( objective world ) में विद्यमान विभिन्न चीज़ें और प्रक्रियाएं प्राकृतिक आवश्यकताओं की वज़ह से तब उत्पन्न होती हैं, जब उनकी उत्पत्ति ( emergence ) के पूर्वाधार ( prerequisites ), कारण ( causes) और दशाएं ( conditions ) बन चुकी होती हैं। समुचित समय बाद विकास उस स्थल पर पहुंचता है, जहां अभी तक नयी वस्तु या प्रक्रिया उत्पन्न नहीं हुई है, परंतु उसकी उत्पत्ति की दशाएं बन चुकी हैं, क्योंकि वे पूर्ववर्ती विकास से परिपक्व हुई थीं।

इस तरह, पुरातन ( old ) के द्वंद्वात्मक निषेध ( dialectical negation ) से जो नयी ( new ) घटनाएं या प्रक्रियाएं उत्पन्न होती हैं, वे रिक्तता ( vacuum ) से नहीं उपजती। उनकी पूर्वावस्थाएं, आधार तथा दशाएं पूर्ववर्ती घटनाओं और प्रक्रियाओं में बनती तथा विद्यमान रहती हैं। किसी नयी चीज़ की उत्पत्ति के बुनियादी पूर्वाधारों, कारणों तथा दशाओं का अस्तित्व, यानि पूर्वावस्थाओं तथा दशाओं की वह समग्रता ( aggregate ) जिस ने अभी नयी घटना को जन्म नहीं दिया है, को आम तौर पर “संभावना” ( possibility ) संकल्पना से व्यक्त किया जाता है। स्वयं प्रक्रिया, जो पहले से ही विद्यमान है, उत्पन्न हो रही है, क्रियाशील है और विकसित हो रही है, उसे संकल्पना “वास्तविकता” ( actuality ) यायथार्थता” ( reality ) से व्यक्त किया जाता है। संभावना और वास्तविकता दो घनिष्ठता से संबंधित संकल्पनाएं ( concepts ) हैं, जो एक दूसरे की परस्पर संपूरक ( supplement ) होती हैं, विकास की किसी भी प्रक्रिया की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषताओं को चित्रित करती हैं और इसीलिए द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के प्रवर्गों का एक युग्म समझी जाती हैं।

वास्तविकता की संकल्पना को व्यापक अर्थ ( broad sense ) में भी इस्तेमाल किया जाता है और संकीर्ण अर्थ ( narrow sense ) में भी। व्यापक अर्थ में इसका तात्पर्य उस सब से होता है, जो वस्तुगत जगत में विद्यमान है. और संकीर्ण अर्थ में इसका तात्पर्य एक निष्पन्न ( accomplished ), साकार संभावना ( realized possibility ) होता है। संभावना, वास्तविकता के विकास से उत्पन्न होती है और वास्तविकता संभावना से तैयार होती है। अतः उन्हें एक दूसरे से अलग नहीं किया जाना चाहिये।

व्यवहार में वास्तविकता से संभावना का विलगाव ( detachment ), अवास्तविक  संभावनाओं के बारे में अमूर्त संलाप ( abstract discourse ) पर पहुंचा देता है, क्योंकि सच्ची संभावना हमेशा वास्तविकता से जुड़ी होती है और उसी से पैदा होती है। दूसरी तरफ़, संभावना से वास्तविकता का विलगाव नये के अहसास को कुंद ( blunt ) बना देता है और परिप्रेक्ष्य ( perspective ) को निगाहों से ओझल कर देता है।

इसके साथ ही, संभावना और वास्तविकता को एक दूसरी के तदनुरूप ( identified ) भी नहीं मानना चाहिये, क्योंकि वे एक टेढ़ी-मेढ़ी और बहुधा कठिन प्रक्रिया द्वारा एक दूसरी से अलग-अलग होती हैं और इसी प्रक्रिया में दौरान संभावना, वास्तविकता में परिवर्तित होती है। मिसाल के लिए, सामाजिक जीवन में संभावना को वास्तविकता में बदलने के लिए गहन प्रयत्नों की जरूरत होती है और यह बदलाव विभिन्न सामाजिक शक्तियों के संघर्ष ( struggle ) से संबंधित होता है। व्यवहार में संभावना और वास्तविकता को तदनुरूप समझ लेने से आत्मतुष्टि ( complacency ) की भावना पैदा हो जाती है और बदलाव के मक़सद से होनेवाले कार्यकलापों में ढ़िलाई ही पैदा होती है।

अमूर्त और वास्तविक संभावनाओं के बीच अंतर करना जरूरी है। संभावना तभी वास्तविक होती है, जब उसके कार्यान्वयन के सारे पूर्वाधार बन गये हों। किसी भी संभावना के वास्तविकता में परिणत होने के लिए परिवर्तन की इस प्रक्रिया को वास्तविकता के कुछ वस्तुगत नियमों के अनुरूप होना चाहिए और उसके लिए आवश्यक सारी पूर्वावस्थाएं उपस्थित होनी चाहिए। यदि ये पूर्वावस्थाएं अपर्याप्त हों या उनका अभाव हो, तो संभावना अमूर्त ( abstract ) और आकारिक ( formal ) होती है। आवश्यक पूर्वाधारों के बनने पर ही यह अमूर्त या आकारिक संभावना, ठोस ( concrete ) या वास्तविक संभावना ( real possibility ) में परिणत हो जाती है।

अधिकांश पौधे विशाल संख्या में बीज पैदा करते हैं लेकिन इस बात की मात्र अमूर्त और आकारिक संभावना होती है कि प्रदत्त पौधे के सारे बीज उगेंगे और उनसे पौधे उपजेंगे तथा अपनी बारी में नये बीज पैदा करेंगे। यह संभावना पुनरुत्पादन ( reproduction ) के जैविक नियमों के पूर्ण अनुरूप है, किंतु इसके वास्तविकता में परिणत हो सकने के लिए आवश्यक पूर्वावस्थाओं का अस्तित्व नहीं होता। हो सकता है कि बीजों को अनुकूल ज़मीन न मिले, उन्हें परिंदे या कीड़े खा जायें, वे शाकपातनाशी ( weed-killers ) पदार्थों से नष्ट हो जायें, आदि। यदि सारी आवश्यक पूर्वावस्थाएं सभी बीजों को उपलब्ध हो जायें तो चंद वर्षों में एक ही पौधे के वंशज सारी पृथ्वी पर छा जायें।


इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम

अनिवार्यता और संयोग – ४

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने भौतिकवादी द्वंद्ववाद के प्रवर्गों के अंतर्गत ‘अनिवार्यता और संयोग’ के प्रवर्गों पर चर्चा को आगे विस्तार दिया था, इस बार हम इन प्रवर्गों पर द्वंद्वात्मक दृष्टिकोण को कुछ और समझते हुए इस चर्चा का समापन करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।


भौतिकवादी द्वंद्ववाद के प्रवर्ग
अनिवार्यता और संयोग – ४
( necessity and chance ) – 4

Content_as_form_purification-1204055904प्रकृति और समाज में अनेकानेक अनिवार्यताएं एक दूसरे को प्रतिच्छेदित ( intersects ) तथा परस्पर अंतर्क्रियाएं ( mutual interaction ) करती रहती हैं। ऐसे प्रतिच्छेदनों व अंतर्क्रियाओं के फलस्वरूप ही संयोग का जन्म होता है। संयोग भी उतना ही वस्तुगत ( objective ) है, जितनी की अनिवार्यता और उसी की तरह यह भी मनुष्य की चेतना के बाहर विद्यमान हैं। उनके बीच एक गहन और आंतरिक संयोजन ( connection ) है ; भूतद्रव्य ( matter ) के विकास और गति के दौरान वे एक दूसरे में रूपांतरित ( transform ) हो सकते हैं, वस्तुतः स्थान परिवर्तन कर सकते हैं। जो चीज़ एक मामले में तथा एक प्रणाली ( system ) में संयोग है वह दूसरे संबंध तथा दूसरी प्रणाली में अनिवार्यता बन सकती है और इसी भांति, अनिवार्यता संयोग बन सकती है। इस तरह, अनिवार्यता हमेशा संयोग से होकर अपने लिए रास्ता बनाती है और उसी के ज़रिये अपने को उद्घाटित करती है, जबकि प्रत्येक सांयोगिक वृत्त में अनिवार्यता का एक निश्चित अंश होता है।

द्वंद्वात्मक विधि ( dialectical method ) आधुनिक विज्ञान के अनुरूप इन दोनों के बीच संयोजनों की जांच करने की ज़रूरत पर बल देती है। प्रकृति और समाज का सही ढंग से संज्ञान ( cognition ) प्राप्त करना केवल ऐसे ही उपागम ( approach ) से संभव है। इसलिए यह सोचना ग़लत है कि विज्ञान ‘संयोग’ का शत्रु है। जो वैज्ञानिक प्रत्येक सांयोगिक घटना का ध्यान से अध्ययन करता है, केवल वही सांयोगिक घटनाओं के पीछे निहित गहन, स्थायी, अनिवार्य संयोजन की खोज कर सकता है।

संयोग सापेक्ष ( relative ) होता है। ऐसी कोई घटनाएं नहीं हैं, जो हर मामले में और हर तरह से संयोगात्मक हों और अनिवार्यता से जुड़ी हुई न हों। कोई एक सांयोगिक घटना किसी निश्चित नियमबद्ध संयोजन के संबंध में ही संयोगात्मक होती है, जबकि किसी अन्य संयोजन के मामले में वही घटना अनिवार्य भी हो सकती है। मसलन, वैज्ञानिक विकास के संपूर्ण क्रम की दृष्टि से यह महज़ एक संयोग है कि किसी वैज्ञानिक ने कोई खोज की, लेकिन ख़ुद वह खोज उत्पादक शक्तियों ( productive forces ) द्वारा हासिल विशेष विकास-स्तर का, स्वयं विज्ञान की प्रगति का आवश्यक परिणाम है।

संयोग अक्सर दो या अधिक अनिवार्य संपर्कों के प्रतिच्छेद-बिंदु पर होता है। मिसाल के लिए, तूफ़ान में गिरे एक पेड़ को ले लीजिये। उस पेड़ के जीवन में वह तेज़ हवा एक संयोग थी, क्योंकि वह उस पेड़ के जीवन व वृद्धि के सार से अनिवार्यतः उत्पन्न नहीं हुई। लेकिन मौसमी कारकों के संबंध में वह तूफ़ान एक अनिवार्य घटना था, क्योंकि उसकी उत्पत्ति उन कारकों की संक्रिया ( operation ) के कुछ निश्चित नियमों का फल थी। संयोग उस बिंदु पर हुआ, जहां दो अनिवार्य प्रक्रियाएं – एक पेड़ का जीवन और तूफ़ान का उठना – एक दूसरी को काटती हैं। इस उदाहरण में केवल हवा ही पेड़ के लिए संयोग नहीं, बल्कि वह पेड़ भी हवा के लिए वैसा ही संयोग था, जो उसके रास्ते में आ पड़ा।

अतः संयोग प्रदत्त घटना या प्रक्रिया के संबंध में कोई बाहरी चीज़ है और फलतः उस घटना या प्रक्रिया के लिए संयोग का होना संभव तो है, परंतु अवश्यंभावी नहीं और वह हो भी सकता है या नहीं भी हो सकता।

Jose-Clemente-Orozco-Painting-Zapatistas-अनिवार्यता एक स्थायी और पुनरावर्तक चीज़ के रूप में अनेकानेक संयोगों के बीच प्रकट होती है और उन्हीं से होकर अपनी राह बनाती है। मिसाल के लिए, सामाजिक विकास विविधतापूर्ण प्रयासों, लक्ष्यों तथा स्वभावोंवाले अनेकों व्यक्तियों के क्रियाकलाप का कुल जोड़ होता है। ये सारे प्रयास अंतर्गुथित होते हैं तथा टकराते है और अंततः विकास की एक निश्चित दिशा में परिणत होते हैं, जो पूर्णतः अनिवार्य प्रकृति की होती है। संयोग हमेशा अनिवार्यता के साथ होते हैं और उनको परिपूर्ण बनाते हैं और इस तरह इतिहास में एक निश्चित भूमिका अदा करते हैं। यही कारण है कि सामाजिक विकास के एक ही नियम विभिन्न देशों व विभिन्न अवधियों में विशेष रूप ग्रहण कर लेते हैं, अपने खास ढंग से संक्रिया करते हैं।

उस तथ्य से कि अनिवार्यता संयोग के ज़रिये साकार हो सकती है, यह निष्कर्ष निकलता है कि संयोग अनिवार्यता को परिपूर्ण ही नहीं बनाता, बल्कि यह उसकी अभिव्यक्ति का एक रूप भी है और यह अनिवार्यता तथा संयोग की द्वंद्वात्मकता को समझने के लिए महत्त्वपूर्ण है। यथा, सामाजिक क्रांतिया तथा नियमानुसार होनेवाली अन्य सामाजिक घटनाएं अनेक सांयोगिक परिस्थितियों से जुड़ी हैं, जैसे विभिन्न घटनाओं का स्थान व समय, उनके सहभागी आदि। यह परिस्थितियां ऐतिहासिक विकास के संबंध में सांयोगिक हैं, लेकिन इन्हीं सांयोगिक परिस्थितियों के ज़रिये अनिवार्य प्रक्रियाएं होती हैं।

सामाजिक विकास को संतुलित क्रिया बना कर, ऐसी अनुकूल दशाएं बनाई जा सकती हैं, जो अवांछित ( unwanted ) संयोगों के प्रभाव को सीमित करना संभव बना सकती हैं। जैसे, वैज्ञानिक कृषि कर्म का उपयोग शुरू करने, भू-सुधार तथा अन्य उपायों से विभिन्न प्रदेशों तथा सारे देश में कृषि उत्पादन पर मौसमी गड़बड़ियों के दुष्प्रभाव काफ़ी हद तक सीमित किये जा सकते हैं। इसी तरह सचेत व सोद्देश्य मानवीय क्रियाकलाप सांयोगिक घटनाओं की भूमिका को तेज़ी से घटा सकते हैं। इसलिए हमें सीखना चाहिये कि हम संयोगों की अवहेलना न करें, बल्कि उनका अध्ययन करें ताकि, एक ओर तो, प्रतिकूल ( adverse ) संयोगों का पूर्वानुमान लगाया जा सके, उन्हें रोका या सीमित किया जा सके और, दूसरी ओर, अनुकूल संयोगों का उपयोग किया जा सके।

विश्व में अग्रगामी प्रक्रियाओं के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाना, उनकी नियमानुवर्तिताओं को समझना और वस्तुगत नियमों के ज्ञान के बल पर प्राकृतिक व सामाजिक प्रक्रियाओं का नियंत्रण करना महत्त्वपूर्ण है। अनिवार्यता निश्चित वस्तुगत दशाओं में प्रकट होती है। परंतु ये दशाएं बदलती रहती हैं और उन्हीं के तदनुरूप अनिवार्यता भी बदलती व विकसित होती है। अनिवार्यता बने-बनाये रूप में कभी उत्पन्न नहीं होती, बल्कि पहले एक ऐसी संभावना ( possibility ) के रूप में अस्तित्वमान होती है, जो केवल अनुकूल दशाओं में ही वास्तविकता ( actuality ) में परिणत होती है।

अगली बार हम द्वंद्ववाद के इन्हीं दो प्रवर्गों, संभावना और वास्तविकता पर चर्चा शुरू करेंगे।


इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय अविराम

अनिवार्यता और संयोग – ३

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने भौतिकवादी द्वंद्ववाद के प्रवर्गों के अंतर्गत ‘अनिवार्यता और संयोग’ के प्रवर्गों पर चर्चा को आगे विस्तार दिया था, इस बार हम उसी चर्चा को नियमानुवर्तिताओं के संदर्भ में और आगे बढ़ाएंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।


भौतिकवादी द्वंद्ववाद के प्रवर्ग
अनिवार्यता और संयोग – ३
( necessity and chance ) – 3

18Authier2010Fulcrum-565x468अब तक की चर्चा के आधार पर, हम तो यह मान सकते हैं कि घटनाएं केवल सांयोगिक होती हैं और यह कि सब कुछ अनिवार्य, अवश्यंभावी है और यह ही कि कुछ घटनाएं सांयोगिक होती है तथा कुछ अनिवार्य। इन मान्यताओं के समर्थकों का दृढ़ विश्वास है कि हर घटना या तो शत प्रतिशत अनिवार्यता है या शत प्रतिशत संयोग और एक ही घटना में दोनों विलोम ( opposites ) नहीं पाये जा सकते। किंतु वास्तविकता तो यह है कि हर घटना इन विलोमों का संपात या एकत्व होती है। ऐसा क्यों?

प्रेक्षण से हमें पता चलता है कि हर नियम-नियंत्रित क्षेत्र की अलग-अलग घटनाएं एक दूसरे से काफ़ी भिन्न होती हैं। तो यहां पुनरावृत्ति ( recurrence ) कहां हैं? और यदि पुनरावृत्ति नहीं है, तो नियम ( law ) कहां हैं? नियमों का इसके अलावा और कोई महत्त्व नहीं होता कि वे प्रवृत्ति ( trend, tendency ) या औसत को दिखायें। आर्थिक नियमों की ही तरह ही प्रकृति में भी यही बात देखने में आती है। जीवों और वनस्पतियों की लाखों जातियों में यह प्रवृत्ति बार-बार दोहराई जाती है कि जो जातियां अपने को परिवेश के अनुकूल नहीं बना पातीं, वे मर जाती हैं, और जो बना लेती हैं, वे जीवित रहती हैं।

द्वंद्ववाद के नियमों ( laws of dialectics ) के प्रसंग में हम यह बता चुके हैं कि प्रकृति और समाज में पूर्ण, शत प्रतिशत पुनरावृत्ति कभी नहीं होती। कुछ संबंधों की पुनरावृत्ति बेशक और अवश्य होती है, हालांकि वह पूर्ण नहीं, बल्कि स्थूल पुनरावृत्ति ही है। अनिवार्यता इसी में प्रकट होती है। नियम का सार यही है कि किसी अलग घटना के लिए बहुसंख्य संभावनाओं की गुंजाइश छोड़ने के साथ-साथ वह उनकी हद, संभव और असंभव के बीच की सीमा निर्धारित करता है।

उदाहरण के लिए, एक अणु दूसरे अणु से टकराकर उसे जो ऊर्जा अंतरित करता है, उसका मान कुछ भी हो सकता है। किंतु नियम इस ‘कुछ भी’ की सीमा निर्धारित करता है और इस सीमा के बाद असंभाव्यता ( impossibility ) का क्षेत्र आ जाता है। यह असंभव है कोई अणु दूसरे अणु को अपने में निहित ऊर्जा से अधिक ऊर्जा अंतरित करे। अलग-अलग घटनाओं का नियम से विचलन ( deviation ) उस नियम द्वारा निर्धारित सीमाओं में ही होता है। नियम का उल्लंघन ( violation ), नियम के विपरीत घटना असंभव है।

नियम जिन बहुसंख्य घटनाओं का निष्कर्ष ( conclusion ) होता है, उनमें से हर एक घटना इस या उस दिशा में, कम या अधिक मात्रा में नियम से विचलन ही है और उस अर्थ में वह संयोग है, जिसका निस्संदेह सदा कोई न कोई कारण होता है। यह नियम का उल्लंघन नहीं, अपितु उसकी पूर्ति है : संयोग अनिवार्यता की अभिव्यक्ति का एक रूप है। नियम संयोगों के रूप में ही साकार बनता है, वह संयोगों के ‘बिखराव’ की सीमाओं को निर्धारित करता है। किसी नियम को उद्घाटित कर पाना इसीलिए कठिन होता है कि वह अपने विलोम, अर्थात नियम से विचलनों – में ही प्रकट होता है : सार्विक ( universal ), अनिवार्य और आवृत्तिशील संबंध केवल एकाकी, काफ़ी हद तक दोहराई न जानेवाली, सांयोगिक घटनाओं में प्रकट होता है। ऐसे कोई तथ्य नहीं हैं, जो या तो मात्र सांयोगिक हों, या मात्र अनिवार्य। हर तथ्य इन दो विलोमों की एकता ( unity of opposites ) दिखाता है।

कभी-कभी कुछ विद्वानों को कहते पाया जाता है कि बहुसंख्यीय पिण्डों ( जैसे घोल में विद्यमान अणुओं और अन्तरिक्षीय किरणों में विद्यमान सूक्ष्मकणों ) के मामले में तो अनिवार्यता वस्तुतः संयोग के रूप में प्रकट होती है और नियम हर पृथक अणु या सूक्ष्मकण का भाग्य अलग रूप से पूर्वनिर्धारित किये बिना, स्थूल या औसत रूप में क्रियान्वित होता है। मगर जहां तक क्लासिक यांत्रिकी ( classic mechanics ) के नियमों से नियंत्रित एकाकी पिंडों का सवाल है, तो उनमें शुद्ध अनिवार्यता ही देखने में आती है, जो संयोग के लिए कोई गुंजाइश नहीं छोड़ती। इन विद्वानों के अनुसार, यहां नियम पूर्ण यथातथ्यता और अपरिहार्यता के साथ हर अलग पिण्ड के भाग्य को पूर्वनिर्धारित करते हैं। प्रमाण के तौर पर वे कहते हैं कि पृथ्वी, मंगल और अन्य ग्रह अरबों वर्षों से बिल्कुल एक ही सी गतियों को दोहरा रहे हैं, जिन्हें क्लासिकी यांत्रिकी ने ठीक-ठीक निरुपित कर दिया था।

bubblePaint.0012-300x225किंतु ऐसे प्रमाण में विश्वास तब तक ही किया जा सकता था, जब तक माप ( measurement ) अपेक्षाकृत अल्प सटीक यंत्रों की मदद से किये जाते थे। अधिक परिशुद्ध यंत्र इस्तेमाल करके वैज्ञानिकों के पता लगाया है कि अपनी कक्षा पर पृथ्वी का हर चक्कर पूर्ववर्ती चक्कर से भिन्न होता है और इसी तरह उसकी सूर्य के गिर्द परिक्रमाएं भी एक सी नहीं होती।

यह पाया गया है कि हर अलग पिण्ड ( body ) की गति का प्रक्षेप पथ ( trajectory ) लाखों अतिसूक्ष्म हिस्सों से बना हुआ है जिनमें से हर एक, नियम द्वारा निर्धारित पथ से विचलन दिखाता है। ये अतिसूक्ष्म हिस्से नियम के अनुरूप तभी होते हैं, जब उन्हें समष्टि के रूप में लिया जाता है। यह बात सभी एकाकी पिण्डों पर लागू होती है। उनमें से हर एक उसमें अधिक गहरे स्तर में निहित बहुसंख्य तत्वों का योग है। दूसरे शब्दों में, एकाकी पिण्ड वास्तव में अपने अधिक गहरे स्तर पर बहुसंख्यीय पिण्ड ही है और जिस नियम से वह नियंत्रित होता है, वह उस पिण्ड के बहुसंख्य तत्वों के उससे विचलनों का योग है।

इसलिए ही कहा गया था कि सामाजिक विज्ञान का संबंध ( सामान्यतः सारे विज्ञान का भी ) बहुसंख्यीय परिघटनाओं से है, न कि एकाकी घटनाओं से। इस तरह यदि एकाकी और बहुसंख्यीय परिघटनाओं ( phenomenon ) का अंतर सापेक्ष है, तो परिशुद्ध नियमों और केवल औसत, प्रवृत्ति के रूप में ही काम करने वाले नियमों का अंतर भी सापेक्ष ( relative ) है। नियम, हर तरह का नियम संकीर्ण, अपूर्ण और स्थूल होता है

इस प्रश्न को द्वंद्वात्मक ढंग से समझना न केवल विज्ञान, अपितु तकनीक के लिए भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। इस बात को इलेक्ट्रॉनिकी के क्षेत्र में काम करनेवाले विशेष तीक्ष्णता के साथ महसूस करते हैं, क्योंकि वहां अनिवार्यता और संयोग की द्वंद्वात्मक समझ के बिना काम नहीं चल सकता। इलेक्ट्रॉनिकी से इतर क्षेत्रों में भी पुराना यंत्रवादी दृष्टिकोण नयी मशीनें डिज़ायन करने में तभी तक सहायक हो सकता है, जब तक कि वे अपेक्षाकृत कम जटिल हैं और उनसे अधिक ऊंची परिशुद्धता ( accuracy ) की अपेक्षा नहीं की जाती। किंतु इस पुराने दृष्टिकोण के आधार पर कोई ऐसा यंत्र बनाया भी जाता है, जिसमें किसी न किसी बात में एक दूसरे से असंबद्ध बहुत से पुर्जे हैं और जिससे सर्वाधिक परिशुद्ध लेथमशीनों से भी हज़ारों गुना अधिक परिशुद्धता की अपेक्षा की जाती है, तो उसमें किसी छोटे से पुर्जे के ख़राब होने की देर है कि सारा यंत्र ख़तरे में पड़ जायेगा।

यंत्र ( machine ) से जितनी ही अधिक परिशुद्धता और जटिलता की अपेक्षा की जायेगी, वह उतना ही कम विश्वसनीय होगा। उदाहरण के लिए, १९६२ में संयुक्त राज्य अमरीका द्वारा शुक्र ग्रह की ओर छोड़े गये एक रॉकेट को बीच ही में इसलिए नष्ट कर देना पड़ा कि कंप्यूटर के लिए बनाये गये प्रोग्राम में एक हाइफन – डैश – चिह्न छूट गया था। उल्लेखनीय है कि इस रॉकेट के बनाने पर  १.८ करोड़ डालर ख़र्च हुए थे। इसलिए पिछले कुछ समय से ऐसे यंत्र बनाने पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा है, जिनके पुर्जों में नियम से थोड़ा-बहुत विचलन के लिए गुंजाइश हो और यदि कोई एक या कुछ पुर्जे ख़राब भी हो जायें, तो भी शेष पुर्ज़े और इस तरह सारा यंत्र ठीक ढंग से काम करते रहें। अत्यधिक जटिल और अति परिशुद्ध यंत्रों की विश्वसनीयता में महत्त्वपूर्ण वृद्धि तभी की जा सकती है, जब अनिवार्यता और संयोग के सहसंबंध को द्वंद्वात्मक ढंग से समझा जाये।

ऐसी समझ की आवश्यकता के बारे में २० वीं सदी में क्वाण्टम यांत्रिकी, आनुवंशिकी और साइबरनेटिकी ने इतने अकाट्य प्रमाण प्रस्तुत कर दिये हैं जो कि अनिवार्यता और संयोग के प्रश्न पर द्वंद्वात्मक दृष्टिकोण की महत्ता को स्थापित करते हैं।


इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय अविराम

अनिवार्यता और संयोग – २

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने भौतिकवादी द्वंद्ववाद के प्रवर्गों के अंतर्गत ‘अनिवार्यता और संयोग’ के प्रवर्गों पर चर्चा शुरू की थी, इस बार हम उसी चर्चा को आगे बढ़ाएंगे और देखेंगे कि इन प्रवर्गों पर विभिन्न दार्शनिक दृष्टिकोण क्या कहते हैं।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।


भौतिकवादी द्वंद्ववाद के प्रवर्ग
अनिवार्यता और संयोग – २
( necessity and chance ) – 2

2010-08-20-LISAADAMSAMorassofContradictionsहमारे परिवेशी विश्व में अनिवार्यता और संयोग के बीच आपस में क्या संबंध है?

एक उत्तर इस प्रकार है : ऐसा कुछ नहीं है, जिसे अवश्यमेव घटना है, और ऐसा भी कुछ नहीं है, जो घट न सके। सब कुछ, सभी घटनाएं, चाहे वे हमें कितनी भी असंभाव्य क्यों न लगें, घट सकती है और ऐसे भी घट सकती हैं और वैसे भी। इस दृष्टि से यथार्थ वास्तविकता में कुछ भी असंभव नहीं है : अनिवार्य ( necessary ) नाम की कोई चीज़ नहीं है और विश्व में जो कुछ भी घटता है, वह नितांत संयोग ( chance ) है।

इस दृष्टिकोण के सार को एक उपन्यास, जिसका नायक कान से पैदा हुआ था, के इन शब्दों में लेखक ने सटीक ढंग से व्यक्त किया है : “मुझे लगता है कि आपको इतने अजीब जन्म पर विश्वास नहीं हो रहा है….आप कहेंगे कि इसमें तनिक भी सच नहीं है….किंतु अगर भगवान ने ऐसा ही चाहा था, तो क्या आप कहेंगे कि वह ऐसा नहीं कर सकता था?….इसीलिए मैं आपसे कह रहा हूं कि भगवान के लिए कुछ भी असंभव नहीं है और अगर वह चाहता है, तो सभी औरतें कानों से ही बच्चे पैदा करतीं।”

जो व्यक्ति अनिवार्यता को नहीं मानता और सोचता है कि दुनिया में सब कुछ संभव है ( इस दृष्टिकोण को अनियतत्ववाद indeterminism कहते हैं ), उसे यह भी मानना होगा कि वह जिस पत्थर पर बैठा था, वह हालांकि अभी तो ख़ामोश है, मगर सर्वथा यह संभव है कि कभी शास्त्रीय गीत गाने लगे, या यह कि यद्यपि कुत्ता चौपाया जानवर है, मगर बिल्कुल मुमकिन है कि उसका पिल्ला बीस पैरोंवाला होगा, या यह कि दो और दो अभी तो चार होते हैं, मगर शायद शाम तक दो और दो एक भी हो सकता है।

अनियतत्ववादी ( indeterminists ) कहने को तो अनिवार्यता और प्रकृति के नियमों को नहीं मानते, मगर व्यवहार में उन्हें अनिवार्यता और प्रकृति के नियमों को मानना ही पड़ता है। यह दिखाता है कि उपरोक्त सिद्धांत कितना अयुक्तिसंगत ( irrational ) है। यहां तक कि धर्म के सरमायेदार भी, जो यह दोहराते नहीं थकते कि ईश्वर के लिए अनिवार्यता कुछ नहीं है, कि उसके लिए सब कुछ संभव है, क़दम-क़दम पर अपने अनियतत्ववाद से पीछे हटते हैं। उन्हें यह मानने पर मज़बूर होना पडा है कि वास्तविकता के बहुत से क्षेत्रों में अनिवार्यता का ही राज है और ‘सर्वशक्तिमान’ ईश्वर भी उसे नहीं बदल सकता : ईश्वर अतीत को नष्ट नहीं कर सकता, वह ऐसा नहीं कर सकता कि त्रिभुज के तीनों कोणों का योग दो समकोणों के बराबर न हो या झूठ सच बन जाये, वग़ैरह-वग़ैरह।

अनियतत्ववाद का विरोध यांत्रिक नियतत्ववाद ( mechanical determinism ) के समर्थक भी करते हैं। वे कहते हैं कि धार्मिक विश्वास में प्राकृतिक नियमों के सभी तरह के उल्लंघनों और सभी तरह के चमत्कारों के लिए जगह है, जबकि विज्ञान सिद्ध करता है कि विश्व में सब कुछ प्रकृति के नियमों और अपरिहार्य अनिवार्यता के अनुसार घटता है। घटनाएं जिस रूप में घटती हैं, उससे भिन्न रूप में वे नहीं घट सकती। यदि एक भी घटना नियमों के विपरीत घटती या ऐसी एक भी घटना होती, जो नहीं घट सकती थी ( संयोग ), तो वह कारणहीन तथ्य या चमत्कार ही होता। किन्तु चमत्कार न तो होते हैं और न हो ही सकते हैं। इस प्रकार की तर्कणा के आधार पर स्पिनोज़ा  ने निष्कर्ष निकाला कि प्रकृति में कुछ भी सांयोगिक नहीं है, कि विश्व में केवल अनिवार्यता है और सब कुछ पूर्वनिर्धारित है।

क्लासिक यांत्रिकी ( classical mechanics ) से इस दृष्टिकोण की पुष्टि हुई। क्लासिक यांत्रिकी के नियम पृथक पिण्ड की गति के प्रक्षेप-पथ को पूर्ण परिशुद्धता ( accuracy ) और अचूक अपरिहार्यता के साथ पूर्वनिर्धारित करते हैं, इस मान्यता के आधार पर वैज्ञानिक आश्चर्यजनक यथातथ्यता ( preciseness ) के साथ आकाशीय तथा पार्थिव पिण्डों के स्थान-परिवर्तन की भविष्यवाणी किया करते थे। किन्तु जब विज्ञान का पृथक पिण्डों की गति के प्रक्षेप-पथ से कहीं अधिक जटिल परिघटनाओं से वास्ता पड़ा, तो स्पष्ट हो गया कि यांत्रिक नियतत्ववादियों का दृष्टिकोण भी अयुक्तिसंगत है।

6a00d8341c575d53ef0168e6e9c755970cजैसे कि जीवों तथा वनस्पतियों के संबंध में प्रकृति का नियम है कि उनमें से कोई भी नित्य नहीं है। किंतु कुछ ऐसे नियम है, जिनके अनुसार कतिपय जीव तथा वनस्पति जातियों का जीवन अत्यधिक लंबा होता है। बरगद के वृक्ष हज़ारों वर्ष जीवित रह सकते हैं, मगर बरगद के हर अलग पौधे के बारे में यही बात नहीं कही जा सकती : वह दूसरे, बीसवें या हज़ारवें दिन ही मर सकता है। ऐसा कोई नियम नहीं है, जो हर अलग पौधे या जीव की मृत्यु के दिन या घंटे को पूर्वनिर्धारित कर सके।

हर घटना अनिवार्य रूप से पूर्वनिर्धारित है और उसके घटने में, उसकी ‘घड़ी आने’ में कुछ भी बाधक नहीं बन सकता, यह स्वीकृति हमें नियतिवाद ( fatalism ) पर ले आती है। एक उपन्यास के नायक ने तब इसी तरह सोचा था, जब उसने अपनी कनपटी पर पिस्तौल तानते हुए कहा था कि यदि यह अनिवार्य रूप से पूर्वनिर्धारित है कि मैं इसी क्षण मर जाऊं, तो यह होकर ही रहेगा, चाहे मैं गोली चलाऊं या नहीं, और अगर यह पूर्वनिर्धारित है कि आज मुझे ज़िंदा बचना है, तो मैं घोड़ा दाबूं या नहीं, इसके बावजूद मैं ज़िंदा रहूंगा ही। नियतिवाद लोगों के रोजमर्रा के व्यवहार से इतना असंगत है कि उसे स्वीकार करने को यांत्रिक नियतत्ववाद के घोरतम समर्थक भी तैयार न हुए। किंतु घटनाओं को अपरिहार्य रूप से पूर्वनिर्धारित मानने के बाद नियतिवाद से कैसे बचा जा सकता है, यह कोई भी यांत्रिक नियतत्ववादी नहीं बता सका। नियतिवाद, यांत्रिक नियतत्ववाद का अनिवार्य परिणाम है

कभी-कभी प्राकृतिक वरण ( natural selection ) के महत्त्वपूर्ण जीववैज्ञानिक नियम का यह अर्थ लगाया जाता है कि हर प्राणी भाग्य के हाथ की कठपुतली है : यदि उसने अपने को जीवन के लिए औरों से कम अनुकूल बनाया है, तो वह जल्दी मर जायेगा और उसका वंश नहीं बढ़ पायेगा, और यदि उसने अपने को जीवन के लिए औरों से बेहतर अनुकूल बनाया है, तो वह बहुत समय तक जियेगा और उसका वंश ख़ूब बढ़ेगा। किंतु इस नियम की ऐसी व्याख्या सरासर ग़लत है। औरों से कम अनुकूलित अकेला प्राणी अपनी जाति के अन्य प्राणियों जितने लंबे समय तक ज़िंदा भी रह सकता है और जन्म के तुरंत बाद मर भी सकता है। उसके सामने बहुत सी दूसरी संभावनाएं भी है। नियम यह पूर्वनिर्धारित नहीं करता कि उस प्राणी के मामले में इनमें से कौनसी संभावना पूरी होगी। जड़ प्रकृति में भी नियम इसी तरह काम करते हैं।

कुछ दार्शनिक अनियतत्ववाद और यांत्रिक नियतत्ववाद की त्रुटिपूर्णता को देखकर मध्यम मार्ग अपनाते हैं। वे कहते हैं कि हर घटना या तो अनिवार्यता है या संयोग। छोटी, अमहत्त्वपूर्ण घटनाएं संयोग हैं और बड़ी महत्त्वपूर्ण घटनाएं अपरिहार्यता, अनिवार्यता। सांयोगिक घटनाओं में कोई अनिवार्यता नहीं होती, इसलिए वे किन्हीं भी नियमों से नियंत्रित नहीं हैं और उन्हें चमत्कार ही माना जाना चाहिए। जहां तक अनिवार्य घोषित घटनाओं का संबंध है, तो इन दार्शनिकों के अनुसार उनमें से हर एक अपरिहार्य रूप से पूर्वनिर्धारित है और हम नियतिवादियों की तरह अवश्यंभाविता के मूक दर्शक ही बन सकते हैं। मध्यमार्गी दृष्टिकोण में पूर्वोक्त दो दृष्टिकोणों जैसी त्रुटियां तो हैं ही, पर इसके अलावा वह इसका निर्धारण पूरी तरह मनुष्य की मर्ज़ी पर छोड़ देता है कि कौन सी घटनाएं चमत्कार है और कौन सी अवश्यंभावी।


इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय अविराम

अनिवार्यता और संयोग – १

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने भौतिकवादी द्वंद्ववाद के प्रवर्गों के अंतर्गत ‘कार्य-कारण संबंध’ के प्रवर्गों पर चर्चा का समापन किया था, इस बार हम ‘अनिवार्यता और संयोग’ के प्रवर्गों को समझने का प्रयास शुरू करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।


भौतिकवादी द्वंद्ववाद के प्रवर्ग
अनिवार्यता और संयोग – १

( necessity and chance ) – 1

732760-caveman-paintings-chauvet-cave-franceसामान्यतः संयोग ( chance ) उसे कहते हैं, जो घट भी सकता है और नहीं भी घट सकता है तथा ऐसे भी घट सकता है और वैसे भी घट सकता है। अनिवार्य ( necessary ) उसे कहते हैं, जिसे अवश्यमेव घटित होना है या जो घटे बिना नहीं रह सकता। जब तेज़ हवा के झोंके से कुकरौंधे के बीज हर दिशा में उड़ते हैं, तो पहले से ही यह कहना असंभव होता है कि वे कहां गिरेंगे। इस स्थिति में हम कहते हैं कि उनके गिरने की जगह नितांत सांयोगिक ( coincidental ) होती है। साथ ही बीजों का बिखरना कुकरौंधे के अस्तित्व ( existence ) की एक अनिवार्य शर्त है। इसके बिना पौधों की यह जाति धरती से लुप्त हो सकती है। ऐसे और भी उदाहरण दिये जा सकते हैं।

हम आसानी से अपने गिर्द की दुनिया में अल्पकालिक, अस्थायी, बाह्य, परिवर्तनीय तथा शीघ्रता से ग़ायब होने वाले ऐसे संयोजनों को देख सकते हैं, जिनके बिना भी कोई एक घटना विद्यमान तथा विकसित हो सकती है। उन्हें “संयोग” कहा जाता है। परंतु प्रत्येक प्रणाली और प्रत्येक घटना में ऐसे संयोजन, अंतर्क्रियाएं और संबंध, तत्व और उपप्रणालियां होती हैं, जिनके बिना वह अस्तित्वमान और विकसित नहीं हो सकती। उन्हें “अनिवार्य” कहा जाता है। अनिवार्यता ( necessity ) और संयोग, द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के सबसे महत्त्वपूर्ण प्रवर्ग ( category ) हैं। वे प्रत्येक भौतिक प्रणाली के प्रमुख लक्षण होते हैं।

अनिवार्यता की संकल्पना ( concept ) कुछ संयोजनों ( connections ) तथा अनुगुणों ( properties ) की समुचित दशाओं के अंतर्गत अवश्यंभावी उत्पत्ति को परावर्तित ( reflect ) करती है। अनुगुण और संयोजन तब अनिवार्य कहे जाते हैं, जब उनके अस्तित्व के कारण उन्हीं के भीतर निहित हों और जब वे एक घटना की रचना करने वाले घटकों की आंतरिक प्रकृति पर निर्भर हों। परंतु जिन अनुगुणों और संयोजनों के अस्तित्व के कारण उनसे बाहर स्थित होते हैं, यानी जो बाह्य परिस्थितियों पर निर्भर होते हैं, उन्हें सांयोगिक कहा जाता है। अनिवार्य अनुगुण और संयोजन अवश्यंभाव्यतः कुछ निश्चित दशाओं में ही उत्पन्न होते हैं, जबकि सांयोगिक अनुगुण और संयोजन अवश्यंभावी नहीं होते और वे उत्पन्न हो भी सकते हैं और नहीं भी हो सकते।

वस्तुगत जगत में घटनाओं के विकास की अवश्यंभावी शक्ति के रूप में अनिवार्यता का ही बोलबाला होता है, क्योंकि यह उनके सार ( essence ) से उपजती है और उनके संपूर्ण पूर्ववर्ती विकास और अंतर्क्रिया ( interaction ) पर आश्रित होती है। अनिवार्यता का प्रवर्ग प्राकृतिक और सामाजिक विकास के नियमबद्ध स्वभाव को अभिव्यक्त करता है।

यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि सांयोगिक घटनाओं के, अनिवार्य घटनाओं की ही तरह, अपने ही कारण ( cause ) होते हैं। यह सोचना ग़लत होगा कि संयोग और कारणहीनता एक ही चीज़ है। कारणहीन घटनाएं क़तई नहीं होती। अनिवार्यता की ही भांति संयोग भी वस्तुगत ( objective ) है और उसका अस्तित्व इस पर निर्भर नहीं है कि हम उसके कारण को जानते हैं या नहीं। संयोग की वस्तुगत प्रकृति को अस्वीकार करने से सामाजिक इतिहास तथा मनुष्य के अस्तित्व को भाग्यवादी, रहस्यमय प्रकृति प्रदान करने की प्रवृत्ति पैदा हो जाती है।


इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय अविराम

कारण और कार्य – ३

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने भौतिकवादी द्वंद्ववाद के प्रवर्गों के अंतर्गत ‘कार्य-कारण संबंध’ के प्रवर्गों पर चर्चा को आगे बढ़ाया था, इस बार हम उसका समापन करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।


भौतिकवादी द्वंद्ववाद के प्रवर्ग
कारण और कार्य – ३
( Cause and Effect ) – 3

IMG_2025जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है, कार्य-कारण संबंध की एक लाक्षणिक विशेषता यह है कि कारण और कार्य आपस में स्थान-परिवर्तन कर सकते हैं। कोई घटना, जो एक स्थिति में किसी कारण का परिणाम है, किसी दूसरी स्थिति या काल में एक कारण भी हो सकती है। मसलन, वर्षा निश्चित मौसमी दशाओं का परिणाम होने के साथ ही अच्छी फ़सल का कारण भी हो सकती है और अच्छी फ़सल ख़ुद अर्थव्यवस्था में सुधार का कारण हो सकती है, आदि, आदि।

सारी घटनाओं के, मुख्यतः पेचीदा ( complicated ) घटनाओं के कई कारण होते हैं। लेकिन कारणों के महत्त्व में अंतर होता है। कारण बुनियादी ( basic ), निर्णायक हो सकते हैं या ग़ैर-बुनियादी, सामान्य हो सकते हैं या प्रत्यक्ष। बुनियादी कारणों को अन्य सारे कारणों में से यह ध्यान में रखते हुए खोज निकालना महत्त्वपूर्ण है कि वे आम तौर पर भीतरी होते हैं। वैज्ञानिक संज्ञान ( scientific cognition ) तथा परिवर्तनकामी व्यवहार के लिए उनकी निश्चित जानकारी का बहुत महत्त्व है।

कार्य-कारण संबंधों में एक और बात की जानकारी आवश्यक है, वह इस प्रेक्षण से संबंधित है कि एक ही कारण हर बार एक ही निश्चित कार्य को उत्पन्न कर पाये यह जरूरी नहीं होता। एक कारण कार्य को उत्पन्न कर सके इसके लिए कुछ निश्चित पूर्वापेक्षाएं ( prerequisites ), कुछ निश्चित परिस्थितियों का संयोग आवश्यक हो सकता है, जिन्हें पूर्वावस्थाएं ( preconditions ) कहा जाता है। “कारण” और “कार्य” के प्रवर्ग, “पूर्वावस्था” के साथ घनिष्ठता से संबंधित हैं। पूर्वावस्था, विविध भौतिक घटनाओं और प्रक्रियाओं का ऐसा समुच्चय होती है, जिसके बिना एक कारण, कार्य को उत्पन्न नहीं कर सकता है। किंतु इसके बावजूद पूर्वावस्थाएं कार्य की उत्पत्ति में सक्रिय ( active ) और निर्णायक ) decisive ) नहीं होती हैं। पूर्वावस्थाओं, कारणों और कार्यों के अंतर्संयोजनों ( interconnections ) की समझ घटनाओं के सही-सही मूल्यांकन ( evaluation ) के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण है।

प्रकृति में हर चीज़ प्राकृतिक, वस्तुगत नियमों के अनुसार और ख़ास तौर से घटनाओं की कारणात्मक निर्भरता ( causal dependence ) के अनुसार चलती है। प्रयोजन ( goal, purpose ) केवल वहीं पर उत्पन्न होता है, जहां मनुष्य जैसा बुद्धिमान प्राणी काम करना शुरू करता है, यानी सामाजिक विकास के दौरान। परंतु यद्यपि लोग अपने लिए विभिन्न लक्ष्य नियत करते हैं, तथापि इससे सामाजिक विकास की वस्तुगत, कारणात्मक तथा नियमबद्ध प्रकृति का निराकरण ( obviate ) नहीं हो सकता। हम कार्य-कारण संबंध की सटीक जानकारियों के उपयोग से अपने इच्छित लक्ष्यों की प्राप्ति के पूर्वाधारों के निर्माण के प्रयास कर सकते हैं, अपनी सफलताओं की गुंजाइश बढ़ा सकते हैं।

कार्य-कारण संबंध सार्विक हैं। लेकिन वास्तविकता के सारे संयोजन इसी तक सीमित नहीं हैं, क्योंकि यह सार्विक संयोजनों का एक छोटा अंश मात्र हैं। विश्व में कारणात्मक संबंधों के जटिल जाल ( intricate network ) में आवश्यक और सांयोगिक संयोजन सबसे ज़्यादा महत्त्वपूर्ण हैं। अगली बार हम इन्हीं “आवश्यकता और संयोग” के प्रवर्गों पर चर्चा करेंगे।


इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय

कारण और कार्य – २

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने भौतिकवादी द्वंद्ववाद के प्रवर्गों के अंतर्गत ‘कार्य-कारण संबंध’ के प्रवर्गों को समझने का प्रयास शुरू किया था, इस बार हम उसी चर्चा को आगे बढ़ाएंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।


भौतिकवादी द्वंद्ववाद के प्रवर्ग
कारण और कार्य – २
( Cause and Effect ) – 2

SaSeoJungकार्य-कारण संबंध के कई मूलभूत लक्षण ( basic features ) होते हैं। सबसे पहले, घटनाओं की कारणात्मक निर्भरता ( causal dependence ) सार्विक है। ऐसी कोई भी घटना या वाक़या नहीं होता है, जिसका कोई कारण न हो। वस्तुओं और घटनाओं के बीच अंतर्संबंधों की अपरिमित श्रृंखला ( infinite chain ) में कारणात्मक संपर्क एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है। दूसरे, कारणात्मक संबंध वस्तुगत ( objective ) होता है, यानी यह भौतिक जगत की घटनाओं के अंदर निहित होता है। इसका मुख्य लक्षण यह है कि निश्चित दशाओं के अंतर्गत, एक निश्चित कारण अनिवार्यतः एक निश्चित कार्य तक पहुंचायेगा। मसलन, लोहे के टुकड़े को गर्म करने पर वह निश्चय ही फैलेगा, लेकिन स्वर्ण में परिवर्तित नहीं होगा। यदि अन्न का एक दाना उपयुक्त मिट्टी पर गिरता है, तो समुचित दशाओं ( appropriate conditions ) के अंतर्गत वह उस अन्न के पौधे को तो निश्चय ही जन्म देगा, लेकिन किसी अन्य पौधे को नहीं।

कार्य-कारण संबंध का एक अन्य प्रमुख लक्षण इसकी अनम्य कालक्रमिकता ( strict sequence in time ) है। यानी जो घटना कारण बनती है, वह उसके कार्य से हमेशा पहले होती है और वह कार्य उस घटना से पहले या उसके साथ-साथ कभी भी नहीं हो सकता है, लेकिन कुछ समय बाद होता है। किसी घटना को किसी कार्य का कारण मानने के लिए कालक्रम में पूर्ववर्तिता आवश्यक तो है, लेकिन एक अपर्याप्त ( inadequate ) शर्त है। किसी घटना से पहले होने वाली हर चीज़ उस घटना का कारण नहीं होती, केवल वे ही पूर्ववर्ती घटनाएं कारण हो सकती हैं जो कार्य के साथ संपर्क ( contact ) और संबद्धता ( association ) में हो, और जिनके पास उस कार्य को उत्पन्न करने के समुचित पूर्वाधार और नियमितताएं मौज़ूद हों।

जब विज्ञान अपर्याप्त रूप से विकसित था और वैज्ञानिक ज्ञान अधिकांश लोगों की पहुंच से बाहर था, तब वे कालक्रम और कारणात्मक संबंध को स्पष्टतः समझने में अक्सर असफल हो जाते थे और फलतः कई असंबद्ध कारणात्मक धारणाएं प्रचलित हो जाती थीं। यह उन अंधविश्वासों तथा पूर्वधारणाओं का एक उद्‍गम ( source ) था, जिनके अवशेष किसी न किसी रूप में आज भी विद्यमान हैं। आज भी समुचित वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अभाव, इस तरह की कई भ्रांतियां पैदा करता है और लोगों द्वारा ऐसी भ्रांतियों को मानने तथा मानते रहने के आधार पैदा करता है, जहां कि सिर्फ़ कालक्रम के आधार पर किन्हीं पूर्ववर्ती असंबद्ध घटनाओं या परिस्थितियों को प्रदत्त घटनाओं का कारण समझ लिया जाता है।

कारणात्मक संबंध पर विचार करते समय यह ध्यान में रखना चाहिये कि कारण बाहरी भी हो सकते हैं और भीतरी भी। किसी वस्तु के परिवर्तन के भीतरी कारण उसके पक्षों की एक अंतर्क्रिया ( interaction ) होने के सबब से उस वस्तु के अपने स्वभाव में ही बद्धमूल ( rooted ) होते हैं। भीतरी कारण बाहरी कारणों से अधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। यह हम अंतर्विरोधों ( contradictions ) की विवेचना के अंतर्गत भली-भांति देख ही चुके हैं।

किसी बाहरी कारण से उत्पन्न कार्य, कारण तथा उस घटना के बीच अंतर्क्रिया का परिणाम होता है, जिस पर कारण की क्रिया होती है। फलतः एक ही कारण विभिन्न कार्यों को उत्पन्न कर सकता है। मसलन, एक ही समय में धूप के कारण बर्फ़ पिघलती है, पौधों में कार्बन डाइआक्साइड का स्वांगीकरण ( assimilation ) व वृद्धि होती है, किसी आदमी की त्वचा का रंग गहरा हो जाता है और उसके शरीर में जटिल शारीरिक क्रियाएं होती हैं। ऐसा भी हो सकता है कि भिन्न-भिन्न कारणों का फल एक ही कार्य हो। मसलन, ख़राब फ़सल सूखे का परिणाम हो सकती है या खेती की त्रुटिपूर्ण विधियों का, यथा, फ़सलों का ग़लत हेरफेर, बीजों का अच्छा न होना, ग़लत समय में बोआई करना, आदि, या ये सभी या कुछ एक साथ भी। अतः किसी एक घटना का कारण या तो विभिन्न वस्तुओं की अंतर्क्रिया या एक ही वस्तु के विभिन्न पक्षों की आपसी अंतर्क्रिया, अथवा ये दोनों साथ-साथ भी हो सकते हैं, यानी बाहरी और भीतरी कारकों का सम्मेल ( combination ) हो सकता है।


इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय

कारण और कार्य – १

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने भौतिकवादी द्वंद्ववाद के प्रवर्गों के अंतर्गत ‘आभास और सार’ पर चर्चा की थी, इस बार हम ‘कार्य-कारण संबंध’ के प्रवर्गों को समझने का प्रयास शुरू करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।


भौतिकवादी द्वंद्ववाद के प्रवर्ग
कारण और कार्य – १
( Cause and Effect ) – 1

dominoesहम यह भली-भांति जानते हैं कि विश्व निरंतर गतिमान है और इसमें निरंतर घटनाएं घटती रहती हैं, कई प्रक्रियाएं चलती रहती हैं। हमारे प्रेक्षण हमें यह भी स्पष्टतः दिखाते हैं कि प्रकृति, समाज और चिंतन की सारी घटनाएं या प्रक्रियाएं, किन्हीं अन्य घटनाओं या प्रक्रियाओं की वज़ह से या उनके द्वारा उत्पन्न और विनियमित ( governed ) होती हैं। जो पहली घटना, दूसरी को जन्म देती है, उसे दूसरी घटना का कारण ( cause ) कहा जाता है। एक घटना ( प्रक्रिया ) को उस हालत में, दूसरी घटना ( प्रक्रिया ) का कारण कहते हैं, जब ( १ ) पहली, काल में दूसरी की पूर्ववर्ती ( preceding ) हो ; ( २ ) और जब पहली, दूसरी की उत्पत्ति ( rise ), परिवर्तन ( change ) या विकास ( development ) के लिए एक आवश्यक पूर्वावस्था ( precondition ) या आधार ( basis ) हो। जो किसी घटना को उत्पन्न करता है, वह उस घटना का कारण कहलाता है। किसी एक घटना की उत्पत्ति, उसकी अवस्था में परिवर्तन तथा उसका विलोपन ( elimination ), कारण पर निर्भर होता है। कारण की संक्रिया ( operation ) का परिणाम कार्य ( effect ) कहलाता है।

विश्व में कारणहीन कुछ नहीं होता। सारी घटनाएं निश्चित कारणों का परिणाम होती हैं। किसी एक घटना के कारण का पता लगाना उसके संज्ञान ( cognition ) का एक प्रमुख तत्व है। कार्य-कारण संबंध ( cause-and-effect connection ) एक प्रकार का सार्विक ( universal ) संबंध है, अर्थात संबंध का एक ऐसा प्रकार है, जिसके अंतर्गत एक घटना या परिस्थिति, अन्य को स्वयं पर आश्रित करती है अथवा उसे उत्पन्न ( engender ) करती है। कारण और कार्य वस्तुगत ( objective ) हैं। उनके बीच संबंध को कारणता संबंध ( causal connections ) कहते हैं। दार्शनिक प्रवर्ग “कारण” और “कार्य” वस्तुगत कारणता संबंधों को परावर्तित करते हैं, जिनका सार्विक महत्त्व है और जो भूतद्रव्य ( matter ) की गति के सारे रूपों में विद्यमान होते हैं। कार्य-कारण संबंध की खोज से विज्ञान की शुरुआत होती है। इन संबंधों का अध्ययन प्राकृतिक, तकनीकी और सामाजिक विज्ञानों का एक महत्त्वपूर्ण काम है।

१८वीं सदी में विज्ञान जगत में ज्ञान की तत्कालीन सीमाओं के अंतर्गत कई अजीब धारणाएं प्रचलित थी। जैसे कि पिण्ड दहनशील ( combustible ) इसलिए होते हैं कि उनमें फ़्लोजिस्टोन नामक द्रव्य पाया जाता है। फ़्लोजिस्टोन हमेशा दहन का कारण है और दहन हमेशा फ़्लोजिस्टोन का कार्य ( परिणाम ) है। इस दृष्टि से फ़्लोजिस्टोन दहन का कार्य नहीं हो सकता, और दहन फ़्लोजिस्टोन का कारण नहीं हो सकता। इसी तरह, लगभग उसी काल में यह धारणा भी प्रचलित हुई कि पिण्डों ( bodies ) के तपने की वजह उनमें तापजनक नामक एक भारहीन पदार्थ का होना है। यह माना जाता था कि तापजनक सदैव तापीय परिघटनाओं ( thermal phenomena ) का कारण और तापीय परिघटनाएं सदैव तापजनक का कार्य हैं। उस काल में सभी ज्ञात विद्युतीय ( electrical ) परिघटनाओं को कुछ विशिष्ट अदृश्य विद्युतीय द्रवों ( liquids ) की क्रिया का परिणाम माना जाता था और सोचा जाता था कि इन द्रवों के कुछ पिण्डों से दूसरे पिण्डों में बहने से ही विद्युत पैदा होती है। तत्कालीन धारणाओं के अनुसार ये विद्युतीय द्रव सदैव विद्युतीय परिघटनाओं के कारण थे और विद्युतीय परिघटनाएं सदैव इन द्रवों का कार्य।

तापीय, विद्युतीय और अन्य परिघटनाओं की ऐसी समझ के आधारों पर ही कारण और कार्य की तत्कालीन समझ पैदा हुई, जिसके अनुसार यदि वस्तु ‘क’ वस्तु ‘ख’ का कारण है, तो यह असंभव है कि वस्तु ‘क’ वस्तु ‘ख’ का कार्य हो। यानी कि कुछ घटनाएं हमेशा अन्य का कारण और अन्य उनके केवल कार्य ( परिणाम ) होती है, अर्थात उनके बीच के संबंध और स्थान अपरिवर्तनीय ( unchangeable ) होते हैं। इस तरह इस द्वंद्ववादविरोधी तत्वमीमांसीय दृष्टिकोण का सार यह था कि एक ही वस्तु में दो विलोम ( यानी कारण और कार्य ) नहीं हो सकते। किंतु ज्ञान के आगे के विकास ने कारण और कार्य के प्रवर्गों ( categories ) की इस तत्वमीमांसीय समझ को भ्रामक ( misleading ) ठहराया। उसने दिखाया कि विश्व तैयार वस्तुओं का जमघट नहीं, अपितु प्रक्रियाओं, संबंधों और संपर्कों की समष्टि है।

आज हम जानते हैं कि पनबिजलीघर में जो बिजली पैदा की जाती है उसका कारण जलधारा की यांत्रिक गति है। जब कोई मशीन, जैसे कि लेथ चालू की जाती है, तो बिजली की धारा उसकी यांत्रिक गति का कारण बनती है। पहले दृष्टांत ( illustration ) में बिजली की धारा यांत्रिक गति का कार्य है और दूसरे दृष्टांत में यही धारा यांत्रिक गति का कारण है। भौतिकवादी द्वंद्ववाद, मानवजाति के अनुभव व ऐतिहासिक व्यवहार तथा विज्ञान की ऐसी उपलब्धियों पर आधारित होने की वजह से यह दर्शाता है कि कोई एक घटना ( मसलन, वर्षा के बादलों में आर्द्रता का संचयन ) जो किसी अन्य घटना का परिणाम है और स्वयं भी एक अन्य घटना ( वर्षा ) का कारण हो सकती है। इस अर्थ में यह कहा जा सकता है कि वस्तुतः कार्य और कारण स्थान परिवर्तन करते हैं ; जो एक समय पर किसी घटना का कार्य है, वह अगले क्षण पर दूसरी घटना का कारण हो सकता है।

यदि कारण-कार्य श्रृंखला की कड़ियों को प्रक्रियाओं ( processes ) के रूप में देखा जाए, तो पता चलेगा कि जब एक प्रक्रिया ‘क’, प्रक्रिया ‘ख’ पर प्रभाव डालकर उसमें परिवर्तन लाती है, तो अपनी बारी में प्रक्रिया ‘ख’ भी प्रक्रिया ‘क’ पर प्रभाव डालकर उसमें परिवर्तन लाती है। इसलिए हर प्रक्रिया दूसरी प्रक्रिया को प्रभावित करते हुए स्वयं भी प्रभावित होती है। इसका अर्थ यह है कि प्रकृति और समाज में भी, संबंध अन्योन्यक्रियाएं ( mutual actions ) हैं तथा एक ही वस्तु या प्रक्रिया में दो विलोम ( कारण और कार्य ) होते हैं।


इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

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