हे मानवश्रेष्ठों,
यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने मित्रों के बीच और परस्पर समझ के रूप में संप्रेषण पर विचार किया था, इस बार हम परस्पर समझ को विकसित करने के लिए एक दूसरे को जानने के क्रियातंत्रों को समझने की कोशिश करेंगे।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
एक दूसरे को जानने के क्रियातंत्र

संप्रेषण में कम से कम दो पक्ष होते हैं और इस प्रक्रिया में मनुष्य का प्रत्यक्ष सामना दूसरे लोगों के केवल बाह्य रूप, व्यवहार और
संप्रेषण के साधन के तौर पर प्रयुक्त क्रियाओं से होता है। परस्पर समझ विकसित करने के लिए, उनमें से प्रत्येक दूसरे के बारे में, उसके अंतर्जगत के बारे में उसके बाह्य व्यवहार के आधार पर ही कोई धारणा कैसे बना सकता है? इसे जानने के लिए हमें अंतर्वैयक्तिक प्रत्यक्षण के तीन मुख्य क्रियातंत्रों,
तादात्म्यीकरण,
परावर्तन और
रूढ़ीकरण को समझना होगा।
तादात्म्यीकरण सचेतन अथवा अचेतन ढ़ंग से अपने को दूसरे व्यक्ति का समरूप मानकर उस व्यक्ति को समझने की प्रणाली है। अन्योन्यक्रिया की प्रक्रिया में पैदा होनेवाली विभिन्न परिस्थितियों में लोग दूसरों की आंतरिक अवस्था, इरादों, विचारों, अभिप्रेरकों, भावनाओं आदि का अपने को उनकी स्थिति में रखकर अनुमान लगाते हैं। प्रवेश परीक्षा के लिए परीक्षा केंद्र के बाहर घबड़ाये हुए छात्रों को व्यग्रतापूर्वक पुस्तक के पन्ने पलटता देखकर, उस कॉलेज का कोई भी विद्यार्थी उस दिन की याद करके उनकी मानसिक अवस्था का अंदाज़ लगा लेता है, जब वह ख़ुद इसी तरह घबड़ाया हुआ परीक्षा केंद्र के बाहर खड़ा परीक्षा शुरू होने का इंतज़ार कर रहा था।
किंतु संप्रेषक के लिए दूसरे पक्ष को बाहरी आदमी जैसे निरपेक्ष तटस्थ भाव से समझना ही जरूरी नहीं है, बल्कि उसके लिए यह जानना भी महत्त्वपूर्ण है कि स्वयं उसे, दूसरे पक्ष द्वारा कैसे देखा और समझा जाएगा। संप्रेषक की, दूसरे पक्ष के मन में बनी, अपने बिंब की चेतना को परावर्तन कहा जाता है। परावर्तन दूसरे व्यक्ति को जानने-समझने की प्रक्रिया का अंग है। दूसरे व्यक्ति को समझने का मतलब, प्रत्यक्षण के कर्ता के नाते अपने बारे में उस व्यक्ति के रवैये को जानना भी है। अतः एक व्यक्ति को जानने-समझने की तुलना आमने-सामने रखे गये दो दर्पणों में लड़नेवाली छाया से की जा सकती है। दूसरे आदमी को अपने मन में परावर्तित करते हुए आदमी उसके अवबोध के दर्पण में स्वयं को भी परावर्तित करता है। संप्रेषण की प्रक्रियाओं में तादात्म्यीकरण और परावर्तन परस्पर अविभाज्य होते हैं।

यदि मनुष्य को संप्रेषण में सहभागियों के बारे में सदा पूरी और विज्ञानसम्मत जानकारी होती, तो वह उनके साथ अपनी अन्योन्यक्रिया की कार्यनीति को बिल्कुल सटीकता के साथ ठीक तय कर लेता। किंतु दैनंदिन जीवन में उसे ऐसी कोई सही जानकारी नहीं होती, जिससे वह दूसरों की क्रियाओं का कारण ख़ुद उन्हें ही समझने को विवश होता है।
दूसरे व्यक्ति पर किन्हीं निश्चित भावनाओं, इरादों, विचारों और व्यवहार के अभिप्रेरकों का आरोपण करके, उन्हें उस दूसरे व्यक्ति की क्रियाओं का कारण बताने को कारणात्मक आरोपण या कारणात्मक व्याख्या कहा जाता है। कारणात्मक आरोपण सामान्यतः अचेतन रूप से किया जाता है, या तो दूसरे से अपना तादात्म्यीकरण करके, यानि उसमें वे ही भावनाएं और अभिप्रेरक आरोपित करके जो व्यक्ति के अनुसार वैसी ही परिस्थिति में ख़ुद उसमें होते, या फिर दूसरों को ऐसे लोगों की कोटि में शामिल करके, जिनके संबंध में उसके मन में पहले से ही कुछ रूढ़ धारणाएं बनी हुई हैं।
रूढ़ीकरण, व्यवहार के रूपों और उनकी कारणात्मक व्याख्याओं का ( कभी-कभी बिना किसी गंभीर कारण के भी ) उनको पहले से ज्ञात अथवा ज्ञात लगनेवाली, यानि सामाजिक रूढ़ धारणाओं से मेल खानेवाली परिघटनाओं की कोटि का मानकर वर्गीकरण करना है। इस लिहाज़ से रूढ़ धारणा मनुष्य का एक स्थिर, अपरिवर्तनीय बिंब है, जिसे ठप्पे जैसा इस्तेमाल किया जाता है। रूढ़ीकरण, अंतर्वैयक्तिक प्रत्यक्षण के कर्ता द्वारा अपने निजी अनुभवों, पुस्तकों, फ़िल्मों, टीवी, आदि से प्राप्त जानकारी और दिमाग़ में टिकी रह गई मित्रों तथा परिचितों की रायों के सामान्यीकरण का परिणाम है। इस तरह से प्राप्त जानकारियां न केवल संदिग्ध, बल्कि सीधे-सीधे मिथ्या भी हो सकती हैं। किंतु अंतर्वैयक्तिक प्रत्यक्षण की रूढ़ धारणाओं को प्रायः सुपरीक्षित मानकों के रूप में लिया जाता है, जो मानो दूसरे लोगों को समझने की कुंजी प्रदान करते हैं।
एक सर्वे से प्राप्त जानकारियों ने दिखाया कि व्यक्ति के बाह्य रूप तथा उसके चरित्र की विशेषताओं के प्रत्यक्ष सहसंबंध के बारे में पूरी तरह ग़लत रूढ़ धारणाएं व्यापकतः प्रचलित हैं। सर्वे में पूछे गये ७२ व्यक्तियों में से ९ की धारणा थी कि चौकोर ठोड़ीवाले दृढ़ संकल्पयुक्त लोग होते हैं, १७ ने बताया कि चौड़ा माथा दिमाग़दार होने का लक्षण है, ३ का विश्वास था कि कड़े बाल आदमी के अक्खड़पन के परिचायक होते हैं, ५ की राय थी कि छोटा क़द दबंग, दमदार और सत्ता के भूखे व्यक्तित्व को दिखाता है, ५ का सोचना था कि सुंदर शक्लवाले लोग बेवक़ूफ़ या आत्मप्रेमी होते हैं और २ आदमी इस मत के थे कि जिसके पतले होंठ होते हैं, वह अवश्य ही घुन्ना और ढ़ोंगी क़िस्म का होगा।

अब यह कहने की जरूरत नहीं रह जाती है कि इन सब रूढ़ धारणाओं का, अंतर्वैयक्तिक प्रत्यक्षण की प्रक्रिया को प्रभावित करना, संप्रेषण में भाग लेनेवाले अन्य लोगों के बिंब को बिगाड़ना और सामान्य संप्रेषण में बाधक होना अनिवार्य ही है। अश्वेत लोगों के व्यवहार की इस नस्लवादी व्याख्या की जड़ में कि वे अतिकामुक, चालाक, मनमौजी, आदि होते हैं, कारणात्मक आरोपण के क्रियातंत्र के तौर पर रूढ़ीकरण ही मौजूद है। इस तरह से, यहां रूढ़ीकरण
पूर्वाग्रह का रूप ले लेता है।
कारणात्मक आरोपण का स्वरूप बहुत-सी परिस्थितियों पर निर्भर होता है और मनोविज्ञानी उन्हें अच्छी तरह जानते हैं। उदाहरण के लिए, किसी अनजान व्यक्ति के बारे में हमारी धारणा या राय काफ़ी हद तक उसके बारे में आरंभ में मिली जानकारी के आधार पर बनती है।
एक प्रयोग में एक ही व्यक्ति का चित्र छात्रों के दो समूहों को दिखाया गया। एक समूह में प्रयोगकर्ता ने कहा कि वह वैज्ञानिक है और दूसरे समूह में कहा गया कि वह अपराधी है। छात्रों को उसकी शक्ल के आधार पर उसके चरित्र का अनुमान लगाना था। पहले समूह ने उसमें परिश्रमी, दयालु, सहानुभूतिपूर्ण तथा समझदार व्यक्ति के लक्षण देखे और दूसरे समूह ने एक निष्ठुर, इरादे के पक्के और चालाक आदमी के लक्षण। चित्र की एक ही तफ़सील, आंखों, ने पहले समूह को दयालु तथा समझदार जैसे विशेषणों के प्रयोग के लिए प्रेरित किया और दूसरे समूह को निष्ठुर और चालाक जैसे विशेषणों के प्रयोग के लिए।

स्पष्ट है कि प्राथमिक जानकारी ने प्रत्यक्षण की प्रक्रिया को बहुत अधिक इकतरफ़ा झुकाव दे दिया था, जिससे छात्र व्यक्ति की आकृति के बारे में अपनी राय को वैज्ञानिक या अपराधी विषयक रूढ़ धारणाओं के अनुरूप बना बैठे। इसी तरह शैक्षिक संप्रेषण में रूढ धारणाएं शिक्षक को छात्रों के पक्ष या विपक्ष में झुकाते हुए उसके आत्मपरकतावाद को जन्म देती हैं। खेद है कि शिक्षक की आत्मपरकता बहुत बार छात्र के बाह्य रूप के बारे में उसकी राय से जुड़ी होती है।
पूर्वाग्रह और आत्मपरकता, दोनों प्रायः प्राथमिक जानकारी की उपज होते हैं। एक प्रयोग किया गया, जिसका उद्देश्य यह मालूम करना था कि पूर्वाग्रहपूर्ण मत के निर्माण में प्राथमिक सूचना की क्या भूमिका होती है।
जैसा कि मालूम है, बहुत सारी पश्चिमी शिक्षा संस्थाओं में छात्रों के बौद्धिक स्तर को बुद्धि-लब्धि ( आईक्यू ) से नापा जाता है। बुद्धि-लब्धि मालूम करने के लिए मानसिक आयु को वास्तविक आयु से विभाजित और फिर फल को १०० से गुणा किया जाता है। इस विशेष मामले में कॉलेज में नये भरती हुए छात्रों के दो समूहों को उनकी बुद्धि-लब्धि ( आईक्यू ) के लिए जांचा गया, ताकि बाद में उन्हें अलग-अलग वर्गों में रखा जा सके। जांचों के परिणाम छात्रों को तो नहीं बताये गये, मगर प्राध्यापकों को अवश्य बताया गया कि अमुक छात्र का आईक्यू नीचा है और अमुक छात्र का बहुत ऊंचा। असल में प्राध्यापकों को जान-बूझकर ग़लत जानकारी दी गई थी।
कुछ समय बाद प्रयोगकर्ताओं ने उन छात्रों की प्रगति की जांच की। पाया गया कि तथाकथित ऊंचे आईक्यूवाले छात्रों की प्रगति सामान्यतः संतोषजनक थी और प्राध्यापक उनसे खुश थे। जहां तक ताकथित नीचे आईक्यूवाले छात्रों का सवाल था, उनकी हालात बदतर थी और जैसे-तैसे खींचे जा रहे थे। कुछेक अपवादों को छोड़कर सामान्यतः हर वर्ग में स्थिति यही थी।
परिणाम क्या बताते हैं? प्राध्यापकों को चूंकि ‘मालूम’ था कि उनके सामने प्रतिभाशाली छात्र है, इसलिए उन्होंने उसकी प्रतिभाओं के प्रस्फुटन में हर तरह से सहयोग दिया,, जबकि दूसरी ओर कथित रूप से प्रतिभाहीनों पर उन्होंने अपना समय गंवाना उचित नहीं समझा और उन्हें साफ़-साफ़ हिक़ारत की नज़रों से देखा, जिसका उनपर और उनकी सामान्य प्रगति पर प्रभाव पड़ना अनिवार्य ही था।
प्राध्यापकों को दी गयी प्राथमिक जानकारी ने छात्रों के प्रति उनके रवैये को पूर्वाग्रहपूर्ण बना दिया और उसे सही ठहराने के लिए उन्होंने कोई कसर बाक़ी नहीं रहने दी।
स्वाभाविकतः प्रश्न उठता है कि क्या पढ़ाई में बच्चे की खराब प्रगति का कारण कभी-कभी शिक्षक का पूर्वाग्रहपूर्ण रवैया ही तो नहीं होता? यह रवैया, जो कभी-कभी छात्र के साफ़-सुथरा न रहने या शरारती होने का परिणाम भी हो सकता है, सर्वतोमुखी आत्मपरकता में और उसे उचित ठहराने की कोशिशों में बदल सकता है।

जिसके बारे में अनुकूल रवैया होता है, उनमें सकारात्मक गुण देखा जाना और जिनके बारे में प्रतिकूल रवैया होता है, उनमें नकारात्मक गुण देखा जाना कारणात्मक आरोपण की ठेठ मिसालें हैं। किसी व्यक्ति द्वारा प्रत्यक्षण कर्ता पर डाली गई सामान्य अच्छी छाप, कर्ता को उस व्यक्ति की उन विशेषताओं का भी सकारात्मक मूल्यांकन करने को प्रेरित करती हैं, जिनसे कर्ता का अभी तक कोई सामना नहीं हुआ है। इसके प्रतिकूल छाप नकारात्मक मूल्यांकन को जन्म देती है। इस निर्भरता को मनोविज्ञान में
परिवेश प्रभाव कहा जाता है। परिवेश प्रभाव सामान्यतः तब पैदा होता, जब प्रत्यक्षण के कर्ता को प्रत्यक्षीकृत व्यक्ति के बारे में अत्यल्प जानकारी ही होती है। इस तरह कुछ शिक्षकों में अपने प्रिय छात्रों को बढ़ावा देने की शैक्षिक दृष्टि से अनुचित प्रवृत्ति अनिवार्यतः छात्रों की प्रगति का आत्मपरकतावादी मूल्यांकन करने और उनकी वैयक्तिक विशेषताओं के बारे में पूर्वाग्रहपूर्ण राय बनाने की ओर ले जाती है।
संयुक्त सामाजिकतः उपयोगी सक्रियता के दौरान ही परिवेश प्रभाव के नकारात्मक परिणाम ख़त्म किये जा सकते हैं। यह सक्रियता अंतर्वैयक्तिक प्रत्यक्ष के स्वरूप को बदल देती है और कारणात्मक आरोपण के लिए अच्छी बुनियाद पेश करती है। काम के माध्यम से बनने वाले अंतर्वैयक्तिक संबंधों और सामाजिकतः महत्त्वपूर्ण उद्देश्यों पर आधारित कार्यकारी समूहों में ही लोग एक दूसरे को ठीक से समझ सकते हैं।
इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय