यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं को समझने की कड़ी के रूप में चिंतन की अभिप्रेरणा पर चर्चा की थी, इस बार हम चिंतन के भेदों पर विचार करेंगे।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
सामान्यतः मनोविज्ञान में चिंतन के निम्न रूपों में भेद किया जाता है : संवेदी-क्रियात्मक, बिंबात्मक और अमूर्त ( सैद्धांतिक )।
संवेदी-क्रियात्मक चिंतन ( sensory-operational thinking )
मानवजाति के ऐतिहासिक विकास और हर बच्चे के मानसिक विकास का आरंभ-बिंदु व्यावहारिक सक्रियता है, न कि सैद्धांतिक सक्रियता। बच्चे का चिंतन व्यावहारिक सक्रियता के दायरे में विकसित होता है। शैशवावस्था और आरंभिक बाल्यकाल में ( ३ वर्ष की आयु तक ) बच्चे का चिंतन अधिकांशतः संवेदी-क्रियात्मक रूप का होता है। बच्चा वस्तुओं को अपने हाथों से, व्यावहारिक रूप से उलट-पलट करके, उन्हें जोड़-तोड़ करके, उनके बीच मिलान करके उनका विश्लेषण व संश्लेषण करता है, उनके बारे में अपना ज्ञान बढ़ाता है। जिज्ञासू बच्चे प्रायः अपने खिलौने तोड़ते हैं, क्योंकि वे मालूम करना चाहते हैं कि ‘उनके भीतर क्या है’।
बिंबात्मक चिंतन ( imagery thinking )
अमूर्त चिंतन ( abstract thinking )
स्कूली बच्चों द्वारा गणित, भौतिकी, इतिहास, आदि विभिन्न विषयों का आधारिक ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया उनके बौद्धिक विकास के लिए अत्यंत महत्त्व रखती है। विषयों से संबद्ध संकल्पनाओं के निर्माण तथा आत्मसात्करण का अनेक मनोवैज्ञानिक अनुसंधानों के दौरान अध्ययन किया गया है और पता लगाने का प्रयत्न किया गया है कि संकल्पनाओं के कौन-से लक्षण किस क्रम में और किन परिस्थितियों में छात्रों द्वारा आत्मसात् किये जाते हैं। स्कूली अवस्था की समाप्ति तक बच्चे कमोबेश मात्रा में संकल्पनाओं की एक पद्धति विकसित कर लेते हैं। वे न केवल अलग-अलग अवधारणाओं ( जैसे गुरुत्व, स्तनपायी ) को बल्कि अवधारणाओं के पूरे वर्गों या पद्धतियों ( जैसे ज्यामितीय संकल्पनाओं की पद्धति ) को भी इस्तेमाल करना शुरू कर देते हैं।
जैसा कि बताया जा चुका है, इंद्रियजन्य ज्ञान की सीमाओं के बाहर स्थित सर्वाधिक अमूर्त चिंतन भी कभी संवेदनों, प्रत्यक्षों और परिकल्पनों से नाता पूर्णतः नहीं तोड़ पाता। चिंतन-प्रक्रिया और ऐंद्रीय अनुभव के बीच अटूट संबंध छात्रों की संकल्पना-निर्माण प्रक्रिया में विशेषतः महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है।
आरंभिक अवस्था में बच्चों को चाक्षुष ( visual ) बिंबों, ठोस ऐंद्रीय सामग्री इस्तेमाल करने में आसानी रहती है। उदाहरण के लिए, बच्चे द्वारा बहुत सारी ऐतिहासिक संकल्पनाओं का आत्मसात्करण बड़ा आसान हो जाता है, यदि उसे इनसे संबंधित चित्र, मॉडल्स, आदि भी दिखाए जाएं और कविताएं व कहानियां भी सुनायी जाएं। दूसरी ओर, हर तरह का चाक्षुषीकरण ( visualization ) और हर तरह की परिस्थिति बच्चों में अमूर्त चिंतन की क्षमता में विकास में सहायक नहीं होती। दृश्य तथा श्रव्य सामग्री की अतिशयता अध्ययनगत विषय के बुनियादी, महत्त्वपूर्ण पहलुओं से बच्चे का ध्यान हटा सकती है और इस तरह उसकी चिंतनात्मक संक्रियाओं ( विश्लेषण तथा सामान्यीकरण ) में बाधा डाल सकती है। इस कारण पढ़ाते समय मूर्त ( concrete ) इंद्रियगम्य और अमूर्त ( abstract ) घटकों में संतुलन बनाए रखे जाना आवश्यक हो जाता है।
किंतु यह सोचना ग़लत होगा कि संकल्पनाओं के आत्मसात्करण के दौरान अमूर्त चिंतन का विकास स्कूली बच्चों के संवेदी-क्रियात्मक और बिंबात्मक चिंतन के विकास को खत्म कर देता या रोक देता है। उल्टे, चिंतन के ये प्राथमिक और आरंभिक रूप पहले जैसे ही जारी रहते हैं और अमूर्त चिंतन के साथ तथा उसके प्रभाव से बदलते तथा सुधरते रहते हैं। चिंतन के सभी भेद और रूप ( बच्चों में भी और बड़ों में भी ) निरंतर विकास करते हैं, हालांकि अलग-अलग श्रेणियों के लोगों में उनके विकास की मात्राएं अलग-अलग हो सकती हैं। उदाहरण के लिए, तकनीशियनों, इंजीनियरों और डिजायनरों में संवेदी-क्रियात्मक चिंतन अधिक विकसित होता है और साहित्य-कला से जुड़े लोगों में बिंबात्मक ( मूर्त-प्रत्यक्षपरक चिंतन )।
जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय